4 दशक से कई राष्ट्रीय नेताओं के हमकदम रहे व वर्तमान राजनिति के विश्लेषक एड. योगेश शर्मा का ये लेख पढ़िए
लोकतांत्रिक व्यवस्था का मूल आधार जनता की भागीदारी और समर्पित नेतृत्व होता है, लेकिन समय के साथ राजनीति में पूंजीपतियों, अपराधियों और ग्लैमर से जुड़े व्यक्तियों का वर्चस्व बढ़ता गया। शुरुआती दौर में राजनीति का स्वरूप पूरी तरह से अलग था, जहां जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव उनके विचारों, संघर्षों और समाजसेवा के प्रति समर्पण के आधार पर करती थी। पूंजीपति इस प्रक्रिया में केवल एक सहायक भूमिका निभाते थे—वे राजनीतिक दलों को चंदा देते थे, लेकिन नीतिगत फैसलों में उनका सीधा हस्तक्षेप नहीं होता था।
पूंजी का बढ़ता प्रभाव: लोकतंत्र से पूंजीतंत्र की ओर
धीरे-धीरे यह समीकरण बदलने लगा। जब नेताओं की निर्भरता पूंजीपतियों के धन पर बढ़ी, तो उद्योगपतियों को समझ में आया कि वे केवल चंदा देकर पीछे रहने के बजाय सत्ता को अपने व्यावसायिक हितों के लिए उपयोग कर सकते हैं। इसके बाद उन्होंने न केवल सत्तारूढ़ दलों को बल्कि विपक्ष को भी आर्थिक सहायता देना शुरू कर दिया ताकि कोई भी सत्ता में आए, उनके हित सुरक्षित रहें।
फिर एक नया दौर आया, जब पूंजीपतियों को यह एहसास हुआ कि जब राजनीति में असली शक्ति उनके धन की है, तो वे स्वयं चुनावी मैदान में उतरकर सत्ता क्यों न संभालें? इसका परिणाम यह हुआ कि भारत सहित कई देशों में बड़े उद्योगपति सीधे सत्ता में आने लगे। अमेरिका तक इस बदलाव से अछूता नहीं रहा। डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना इसका एक बड़ा उदाहरण है, और अब एलन मस्क भी अपने प्रभाव के कारण सत्ता के केंद्र में दिखाई देते हैं। भारत में भी यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है, जहां कई बड़े उद्योगपतियों के राजनीति में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रवेश करने के उदाहरण मिलते हैं।
अपराध और राजनीति का गठजोड़: सत्ता का अपराधीकरण
लोकतंत्र के लिए दूसरी बड़ी चुनौती अपराध और राजनीति का गठजोड़ बन गई। सातवें दशक तक अपराधी सत्ता से डरते थे, लेकिन समय के साथ नेता इन अपराधियों का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करने लगे। पहले इनसे केवल मतदान प्रभावित करवाया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे अपराधियों की पकड़ राजनीति पर मजबूत होती गई।
सातवें दशक से नवें दशक तक अपराधियों ने यह समझ लिया कि जब वोट बैंक की ताकत उनके हाथ में है, तो नेताओं की कठपुतली बनने के बजाय वे खुद चुनाव क्यों न लड़ें? इसके बाद अपराधी खुद चुनाव मैदान में उतरने लगे और सत्ता का हिस्सा बनने लगे। इस प्रवृत्ति ने लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाकर रख दिया, क्योंकि अब नीति निर्माण में नैतिकता, जनहित और सामाजिक उत्थान से अधिक अपराधियों के स्वार्थ हावी होने लगे।
ग्लैमर का आकर्षण: जब सिनेमा से निकले सितारे सत्ता के शिखर पर पहुंचे
लोकतंत्र की तीसरी बड़ी चुनौती ग्लैमर का बढ़ता प्रभाव है। भारत में शुरुआती दो दशकों तक चुनावी राजनीति में फिल्मी सितारों का प्रभाव सीमित था, लेकिन जैसे-जैसे राजनीति में जनसंपर्क और प्रचार का महत्व बढ़ा, नेताओं ने ग्लैमर की शक्ति को समझा।
राजनीतिक दलों ने चुनावी रैलियों में फिल्मी सितारों को बुलाना शुरू किया ताकि जनता आकर्षित हो सके। लेकिन जब इन सितारों को राजनीति में मिलने वाली लोकप्रियता का एहसास हुआ, तो उन्होंने खुद ही चुनाव लड़ना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि एम. जी. रामचंद्रन, जयललिता, एन. टी. रामाराव, और कई अन्य फिल्मी कलाकार सत्ता के शिखर पर पहुंचे।
बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़े कई अभिनेता और अभिनेत्रियां आज भी राजनीति में सक्रिय हैं। हालांकि इनमें से कुछ ने जनता के हित में काम किया, लेकिन कई केवल अपनी लोकप्रियता के दम पर सत्ता का हिस्सा बने और राजनीतिक मूल्यों को कमजोर किया।
लोकतंत्र के लिए खतरा: समाजसेवा और आंदोलनों पर “नो एंट्री”
पूंजीवाद, अपराध और ग्लैमर की तिकड़ी ने राजनीति की पूरी दिशा ही बदल दी। पहले जहां राजनीति में आने के लिए समाजसेवा, संघर्ष और ईमानदारी महत्वपूर्ण माने जाते थे, वहीं अब पूंजी, बाहुबल और लोकप्रियता ही चुनाव जीतने का साधन बन गए हैं।
इसका सीधा असर यह हुआ कि अब साधनहीन, ईमानदार, और समाजसेवा में लगे लोग राजनीति में आ ही नहीं पाते। बड़े आंदोलनों की धार भी कमजोर हो गई है क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था अब केवल पैसे, बाहुबल और चमक-दमक पर केंद्रित हो चुकी है।
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य जनता की भलाई और समानता पर आधारित शासन था, लेकिन आज पूंजी, अपराध और ग्लैमर ने इसे एक नए स्वरूप में ढाल दिया है। अब यह केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि एक ऐसा तंत्र बन चुका है जहां सत्ता का असली नियंत्रण आम जनता के बजाय धनवानों, अपराधियों और मशहूर हस्तियों के हाथ में चला गया है।
यदि लोकतंत्र को उसकी मूल भावना में वापस लाना है, तो जनता को इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए जागरूक होना होगा। ईमानदार, योग्य और समाजसेवा करने वाले व्यक्तियों को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। वरना, आने वाले समय में लोकतंत्र केवल नाम मात्र का रह जाएगा और हकीकत में यह पूंजीतंत्र, बाहुबल और ग्लैमर का खेल बनकर रह जाएगा।
-एड. योगेश शर्मा (राजनितिक विश्लेषक)