सौ बरस के अटल, अटलता के सौ बरस

    भारतीय राजनीति के आकाशधर्मा शलाका पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी की आज 100वीं जयंती है। 1924 के साल में ग़ुलामी की घँधाती आबोहवा में पैदा होकर आज़ादी के आँगन में अपनी युवा बाँहें पसारने वाले कविमना अटल जी का जीवन वस्तुतः संघर्षों की ताप से ताया हुआ और जुनून की हद से नहाया हुआ क्रांतिमना जीवन रहा है।


    आज़ाद भारत में जब ग़रीबी और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा तब उन्होंने उसका प्रतिरोध किया, और बदले में क्या पाया— ‘काराग़ार’। ऐसे में अटल जी के ‘मन’ ने यही कहना चाहा होगा कि ‘धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक साधन जिसका सदा ही किया शोध।’ और फिर, ऐसी निराशा के बाद ही उनके हृदय में ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका’ सरीखा संकल्प जगह बनाएगा।


    बतौर राजनेता; अटल जी भारत के अरिहंत हैं, लेकिन बतौर कवि— वे अपार सम्भावनाशील जीवन-किसलय के कवि हैं। उनका साहित्य उम्मीदों का साहित्य। आत्मगौरव की याददिहानी का साहित्य है। जीवन और मरण की समतुल्यता का साहित्य है। आज उनकी जयंती पर उनकी कुछ कविताएँ याद करना सही मायनों में एक याददिहानी है—

    गीत नया गाता हूँ
    टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
    पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
    झरे सब पीले पात
    कोयल की कुहुक रात

    प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
    गीत नया गाता हूँ

    टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
    अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी

    हार नहीं मानूँगा,
    रार नई ठानूँगा,

    काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
    गीत नया गाता हूँ


    आज़ादी का दिन मना,


    नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती,

    सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;

    
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;

    
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;


    कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;

    
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर

    डॉ. अविनीश प्रकाश सिंह (M. Phil, PhD)

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