हिन्दुस्तान मिरर: अलीगढ़, 28 फरवरीः अलीगढ़, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के फारसी अनुसंधान संस्थान द्वारा ‘भारत और ईरान के संबंधों’ पर एक विशेष व्याख्यान का आयोजन सर सैयद अकादमी द्वारा किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता समाज विज्ञान संकाय के डीन प्रोफेसर शाफे किदवई ने की। ईरान की सर्वोच्च सांस्कृतिक क्रांति परिषद के सचिव, डॉ. अब्दोलहुसैन खोसरोपनाह ने मुख्य अतिथि के रूप में व्याख्यान दिया, जबकि प्रोफेसर अलीरेजा हबीबी और कला संकाय के डीन प्रोफेसर मोहम्मद रिजवान खान विशिष्ट अतिथि के रूप में शामिल हुए।
मुख्य भाषण में, डॉ. अब्दोलहुसैन खोसरोपनाह ने भारत-ईरान संबंधों पर एक गहन और व्यापक व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के संबंध सदियों पुराने हैं, जिसका प्रमाण भारत में पाई जाने वाली फारसी शिलालेखों से मिलता है। उन्होंने इस विषय पर लिखी गई कई पुस्तकों का उल्लेख किया, जिनमें जवाहरलाल नेहरू की एक कृति भी शामिल है। उन्होंने ईरान की प्रसिद्ध महाकाव्य शाहनामा में भारत का कई बार उल्लेख होने की भी बात कही।
डॉ. खोसरोपनाह ने कहा कि सदियों बाद भी यह संबंध जीवित हैं और इनको और सशक्त बनाने के लिए बौद्धिक दृष्टिकोण आवश्यक है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि बुद्धि का संबंध तर्क से है, और तर्क को पोषित करने के लिए शुद्ध और वैध आहार आवश्यक है। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए नैतिकता और सद्भाव की आवश्यकता है।
फारसी अनुसंधान संस्थान के निदेशक और फारसी विभाग के अध्यक्ष, प्रोफेसर मोहम्मद उस्मान गनी ने अतिथियों और प्रतिभागियों का स्वागत किया। उन्होंने प्राचीन फारसी सभ्यता और भारत एवं ईरान की साझा सांस्कृतिक विरासत पर प्रकाश डालते हुए बताया कि दोनों देशों के बीच संबंध आर्य काल से बने हुए हैं और पंचतंत्र के पहलवी भाषा में अनुवाद से और यह संबंध और अधिक मजबूत हुए।
प्रोफेसर गनी ने भारत और ईरान के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक समानताओं का उल्लेख किया। उन्होंने ऐतिहासिक व्यक्तित्वों जैसे दारयुश, जिन्होंने सिंध को अपने साम्राज्य में मिलाया था, तथा नुशीरवान, जिन्होंने विद्वान बिदपाई की बुद्धिमत्ता की सराहना की थी, का उदाहरण पेश किया। उन्होंने यह भी बताया कि गजनवी और गौरी राजवंशों के समय में फारसी विद्वानों और कलाकारों का प्रभाव भारत में बढ़ा और दिल्ली सल्तनत के दौरान कई महत्वपूर्ण फारसी ग्रंथ लिखे गए। मुगल दरबार को सफवीद दरबार का दूसरा संस्करण कहा जाता था, जहाँ फारसी भाषा का उत्थान हुआ।
फारसी अनुसंधान संस्थान की संस्थापक निदेशक और सलाहकार, प्रोफेसर आजरमी दुख्त सफवी ने विशेष अतिथियों का परिचय दिया। उन्होंने बताया कि डॉ. अब्दोलहुसैन खोसरोपनाह ईरान की सभी विश्वविद्यालयों के चांसलर हैं और उनके अधीन पाँच मंत्रालय कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने डॉ. अलीरेजा हबीबी, जो तेहरान के अल्लामा तबातबाई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और ईरान के सांस्कृतिक धरोहर विभाग के उपनिदेशक हैं, का भी परिचय दिया। प्रोफेसर सफवी ने डॉ. खोसरोपनाह के व्याख्यान का उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद प्रस्तुत किया।
प्रोफेसर जकिया सिद्दीकी ने डॉ. खोसरोपनाह के प्रेरणादायक व्याख्यान के लिए आभार व्यक्त किया और कार्यक्रम में उपस्थित युवाओं का ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि उन्हें प्रोफेसर सफवी के पदचिन्हों पर चलना चाहिए, जो सभी के लिए एक आदर्श हैं।
डॉ. अलीरेजा हबीबी ने भारत-ईरान संबंधों पर बोलते हुए दोनों देशों को एक ही वृक्ष की दो शाखाओं के समान बताया। उन्होंने दोनों देशों की साझा संस्कृति और सभ्यता पर लिखी गई कई पुस्तकों का उल्लेख किया और कहा कि समकालीन फारसी साहित्य में भी इस ऐतिहासिक संबंध के प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ईरान में कथा लेखन की परंपरा भारत की प्रसिद्ध पुस्तक पंचतंत्र के माध्यम से विकसित हुई। उन्होंने फारसी शोधकर्ताओं और छात्रों को भारत-ईरान साहित्य पर गहन शोध करने का सुझाव दिया।
प्रोफेसर मोहम्मद रिजवान खान ने फारसी भाषा के प्रति अपनी रुचि व्यक्त करते हुए इसे एक जीवंत भाषा बताया और इसके साहित्यिक महत्व पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने मानवीकी विषयों के सिद्धांतकरण पर विस्तार से बात की और इस बात पर जोर दिया कि साहित्य अध्ययन का मूल तत्व स्वयं साहित्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि सिद्धांतों पर अधिक ध्यान देने के बजाय, साहित्य की सराहना को एक केंद्रित और जड़ित दृष्टिकोण से पुनर्जीवित करना अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने पर्यावरणीय मानवीकी, स्वास्थ्य मानवीकी, ब्लू मानवीकी और डिजिटल मानवीकी जैसी मानवीकी विषयों में उभर रही विभिन्न नई प्रवृत्तियों पर भी चर्चा की।
अपने अध्यक्षीय भाषण में, प्रोफेसर शाफे किदवई ने प्राचीन भारत-ईरान की लोककथाओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ये कहानियाँ दोनों देशों के संबंधों की प्रारंभिक कड़ी थीं। उन्होंने कहा किया कि आधुनिक लेखक और कवि भी अपनी रचनाओं में इस साझा सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख कर रहे हैं। उन्होंने सादेग हेदायत के उपन्यासों का भी उल्लेख किया, जो कई भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि इस संबंध को बनाए रखने के लिए समकालीन फारसी साहित्य पर ध्यान देना आवश्यक है।
कार्यक्रम के अंत में फारसी अनुसंधान संस्थान के निदेशक प्रोफेसर मोहम्मद उस्मान गनी ने डॉ. अब्दोलहुसैन खोसरोपनाह और डॉ. अलीरेजा हबीबी को संस्थान की कुछ प्रकाशित कृतियाँ भेंट कीं।
सत्र के बाद, ईरानी विद्वानों ने एएमयू की कुलपति प्रोफेसर नईमा खातून से उनके कार्यालय में भेंट की और भारत-ईरान के बीच सांस्कृतिक, शैक्षणिक, और अकादमिक सहयोग पर चर्चा की। उन्होंने एएमयू और ईरान की विभिन्न विश्वविद्यालयों के बीच समझौतों को लेकर विचार-विमर्श किया।
डॉ. एहतेशामुद्दीन के धन्यवाद ज्ञापन दिया।