‘ग़ालिब’ होना नसीब है : (जन्म 27 दिसम्बर 1797, आगरा मृत्यु 15 फ़रवरी 1869, दिल्ली)
— डॉ अविनीश प्रकाश सिंह
‘ग़ालिब’ होना नसीब है…..
दिसंबर की सर्द रातें और ठिठुरते दिनों में अपने शब्दों की मशाल लिए इक शख़्स जो बेतहाशा याद आता है उसका नाम मिर्ज़ा ग़ालिब है। ग़ालिब न केवल याद आने की शै बल्कि उनका पूरा जीवन ही याद रह जाने की घटनाओं से अटा पड़ा है। वे आगरे में जन्म और दिल्ली में अपनी रिहाइश बनाई।
दिल्ली में जब अपनी जगह बनानी चाही तो वहाँ के लोगों ने उनकी जगह न बनने दी। तमाम कोशिशों के बाद जब एक बार लालक़िले से बादशाह ज़फ़र का न्योता आया तो उन्होंने जाने से मना कर दिया। दोस्तों यारों के बहुत कहने पर जब वे गए तो बहुत साधारण से हुलिए को देखकर दरबान ने गेट पर रोक लिया और जाने न दिया। वे दोबारा किसी से कपड़े माँगकर वापस लालक़िले पहुँचे तो दरबान ने जाने दिया। ग़ालिब समझ गए कि ज़मीर की कोई क़ीमत नहीं, क़ीमत तो केवल पैराहन की है।
दरबार में मजलिस के ख़त्म होने के बाद जब खाने का समय आया तो वे बादशाह को दिखा दिखा कर कभी अपनी टोपी को कुछ ख़ाना खिलाते , तो कभी अपनी अचकन को कुछ खाना खिलाते। बादशाह से जब न रहा गया तो उन्होंने पूछा कि ग़ालिब ये क्या कर रहे हो! तब ग़ालिब ने अपने साथ बीता क़िस्सा बताते हुए कहा कि दरबार में प्रवेश मुझे नहीं बल्कि मेरे कपड़ों को मिला है, सो उन्हीं को खाना खिला रहा हूँ।
उस ज़माने में भी जब ज़मीनें सस्ती और ज़मीर महँगे हुए करते थे तब भी एक अदद अपना अपना मकान ग़ालिब को मयस्सर नहीं हुआ। ताउम्र किराए के मकानों में रहे। ज़मीर को बचाने की जद्दोजहद ने कभी अपनी ज़मीन नहीं आने दी। जीवन की हर एक साँस को भरपूर जीने और उसे लिख सकने की सलाहियत रखने वाले ये शख़्स उम्रभर संसाधनों की कमीबेशी का मोहताज ही रहा।
बावजूद इस सबके उनका दीवान इस बात की गवाही है कि ज़िंदगी और दुनिया के हर महत्वपूर्ण मसाइल पर उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक है। वो अपने समय में इतनी तार्किक सोच रखते थे कि उन्होंने तमाम विषयों ऐसा लिख दिया जिसे आज भी लिखा जाना कठिन लगता है।
आइए आज उनके जन्मदिन पर उनके कुछ मशहूर शे’र पढ़ते हैं—
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल–ए–यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब‘
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर‘ भी था
हैं और भी दुनिया में सुख़न–वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब‘ का है अंदाज़–ए–बयाँ और
बस–कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मुयस्सर नहीं इंसाँ होना
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा–मस्ती एक दिन